करीब 1967 के आसपास की बात है
मेरी उम्र उस वक्त शायद सात बरस की रही होगी.
बच्चों से भरपूर विशाल संयुक्त परिवार में हमारी हैसियत किसी कीड़े मकोड़े से ज्यादा नहीं थी
यूँ जिंदगी बेफिक्र और खुशहाल थी मगर अभावों से भरपूर
आषाढी एकादशी का दिन था.
खजूर की सूखी हुई पत्तियों से बने हुए हाथ से झलने वाले नौ दस पंखे जमीन पर रखे हुए थे.
हर पंखे के ऊपर एक दशहरी आम, एक छोटा खरबूजा, एक सेब एक केला और एक लीची का छोटा सा गुच्छा , साथ में मिठाई और एक छोटी सी मटकी रखी हुई थी.
लेकिन अफसोस…यह सब हमारे लिए नहीं था, यह सब ब्राह्मणों को दान देने के लिए था.
दूसरी तरफ करीब आठ दस ब्राह्मण काँसे की चमचमाती थालियों में गरमा गरम पूडियां , कचौड़ियाँ , आलू की तरी वाली सब्जी पर तैरती हरे धनिये की पत्तियाँ , सीताफल की सुनहरी सब्जी और खीर की दावत उड़ा रहे थे.
और हम करीब पंद्रह बच्चे लालची मक्खियों की तरह उनके सर पर भिनभिना रहे थे.
अपने ही घर में किसी दरिद्र की भाँति हमें बार-बार दुत्कार कर दूर खड़े रहने को कहा जा रहा था…
दादी बच्चों को बार-बार डाँट रही थी
चलो हटो , सिर पर मत खड़े रहो… दूर हटो …
तुमको भी मिलेगा ,पहले ब्राह्मणों को तो खा लेने दो…
ठीक इसी तरह का दृश्य हमारे दादा जी के श्राद्ध के समय भी होता था.
ब्राह्मणों को दावत उड़ाते देख मन ईर्षा से भर जाता था.
और हम भूखे कुत्तों जैसी ललचाई आँखों से उनके भोजन के खत्म होने का इंतजार करते .
आखिर सारे ब्राह्मण खाना पेट में और बाकी बगल में लपेट के चल दिए तब हमारा खाने का नंबर लगा.
बचे खुचे फल और मिठाई के साथ इतने लजीज खाने के बाद जो तृप्ति का एहसास हुआ उसे महसूस करके छोटी सी उम्र में पहला लक्ष्य निर्धारित कर लिया …
"बड़ा हो कर मैं भी ब्राह्मण बनूँगा"
अक्सर नहाने से पहले बदन पोछने वाला पतला अंगोछा कमर पर लपेट अपनी दोनों टांगों के बीच में से निकालकर पीछे खोंस लेता था और बार-बार अपने सपाट पेट पर हाथ फेरते हुए अपने आप को एक ब्राह्मण के रूप में देखता था…
आ हा क्या जिंदगी है…
दो चार मंतर पढ़ो और पेल कर खाओ…
लेकिन ब्राह्मण बनने का लक्ष्य प्राप्त होने से पहले ही एक नया लक्ष्य सामने आ गया.
पतंग उड़ाने वाली बारीक डोर यानी माँझा सूतने वाला ,गले में ताबीज और घुंघराले बालों वाला "लाली" हमारी जिंदगी का नया "आइडल" बन कर आया और जीवन में आगे जाकर पतंग का माँझा सूतना हमारा नया लक्ष्य हो गया…
"मैं भी बड़ा होकर " लाली" जैसा बनूंगा .
पूरे शहर में मेरे बारीक मांझे की कोई पतंग काट न पाएगा
अचानक हमारी जिंदगी फिर से एक नए लक्ष्य पर शिफ्ट हो गई .
हालाँकि उम्र हमारी उस वक्त बारह साल से ज्यादा नहीं होगी लेकिन दो-चार फिल्में देखते ही हम पर एक्टर बनने का भूत सवार हो गया.
आइब्रो बनाने वाली काली पेंसिल से अक्सर दाढ़ी मूछें बना कर मैं आईने में अपने आप को हर एंगल से देखता था और अपनी शक्ल में मुझे हिंदी फिल्मों का महान अभिनेता नजर आता था.
पर्दे पर मेरी एंट्री होते दर्शक सिक्कों की बौछार कर देंगे.
रोजमर्रा की जिंदगी में भी हमारे अंदाज "एक्टराना" हो गए
घिसी हुई हवाई चप्पल में भी हमारी चाल कुछ इस तरह होती मानों घुटनों तक चमड़े के शिकारी गम बूट पहने हुए हों
और एक दिन हमने परिवार के बीच में खुलेआम ऐलान कर दिया कि मैं तो बड़ा होकर एक्टर बनूंगा , बॉम्बे जाऊँगा, हीरो बनूंगा , दिलीप कुमार की तरह…
लेकिन हमारे ताऊ जी जो सख्त होने के साथ-साथ बड़े ही मजाकिया स्वभाव के थे…
अच्छा तू तो बड़ा होकर "मिरासी" (सड़क पर नाचने गाने वाले) बनेगा???
मुझे हतोत्साहित करने के लिए उन्होंने मेरे ज्ञान में वृद्धि करते हुए कहा…
बेट्टा, किसी भूल में मत रहना , बंबई वाले किसी भी फिल्म में काम करने देने से पहले नंगा नचाते हैं… हाँ…पिछवाड़े में पसीना आ जाता है …
तो क्या सभी एक्टरों को नंगा होना पड़ता है ??? हमने उत्सुकता से पूछा
हाँ बिल्कुल.. जिसको शर्म आ गई एक्टर बन ही नहीं सकता हमारे ताऊ जी ने बड़े विश्वास से जवाब दिया
.हालाँकि उसके बाद सब ठहाका मारकर हँस रहे थे मगर हमने ताऊ जी की बात को सच समझा ,और उसी वक्त एक्टर बनने का विचार त्याग दिया क्योंकि किसी भी कीमत पर हमको अपने कपड़े उतारना मंजूर नहीं था.
हर उम्र की अपनी एक प्रायोरिटी होती है ,उस वक्त हमें हमारी "इज्जत" हमारे "लक्ष्य" से ज्यादा प्यारी लगी .
खैर साहब !!! एक्टर बनने का लक्ष्य मिट्टी में मिलते ही अब जीवन में आने वाले लक्ष्य का स्वरूप बदलने लगा…
इस बीच हमने गायक बनने का "लक्ष्य" भी रखा क्योंकि हमारे कमीने मित्रों के अनुसार हमारी आवाज बहुत अच्छी थी …
यहां पर भी घर से चोरी चोरी हमारी अम्मा ने बकायदा संगीत की शिक्षा लेने के लिए हमारे लिए एक गुरु को नियुक्त किया ,लेकिन गुरु जी के घर प्रवेश करते ही गायक बनने का "लक्ष्य" तिलचट्टे की तरह छलांग मारकर गुरु जी की सुंदर सलोनी बेटी जानकी पर शिफ्ट हो गया…
जानकी में जीवन संगिनी नजर आने लगी.
लेकिन यहां पर भी किस्मत का साथ न दिया हमें सिर्फ दो दिन बाद अपनी इज्जत का फालूदा करवाते हुए संगीत गुरु के द्वार
चौदह पंद्रह के होते ही हारमोन्स अंगड़ाइयाँ लेने लगे , अब हमारी कक्षा में साथ पढ़ने वाली रश्मि कपूर को देखते ही दिल कहता , बस यही मेरे जीवन का लक्ष्य है… बस ये मिल जाए तो जीवन सफल हुआ समझो.
लेकिन इससे पहले कि लक्ष्य पर निशाना साधते… लक्ष्य आँखों के सामने ही विलीन हो गया , नवीं कक्षा के बाद रश्मि कपूर देहरादून पढ़ने चली गई. हम फिर से लक्ष्य विहीन और अकेले रह गए.
पढ़ाई और डिग्री को हमने कभी अपने जीवन का लक्ष्य माना ही नहीं . क्योंकि मैं हमेशा से "कला " Art का विषय लेना चाहता था और घरवालों ने जबरदस्ती मुझे कॉमर्स का विषय लेने को बाध्य किया
उसके बाद पढ़ाई में मेरा जरा भी दिल नहीं लगा. हालांकि अधूरे मन से ही सही, मैने कॉमर्स में ग्रेजुएशन सफलतापूर्वक पूरा किया.
ग्रेजुएशन होते ही हमने अपने आप को किसी तिनके की तरह आंधी में बहते हुए गुजरात के सूरत शहर में पाया.
1976 में व्यापार की तलाश में मेरे पिता सपरिवार सूरत आ गए और मुझे भी उनके साथ साथ सूरत आना पड़ा.
लेकिन सूरत आते ही व्यापार में मेरे पिता को आश्चर्यजनक सफलता मिली .आने वाले दस सालों में व्यापार में अपेक्षित सफलता मिली. जहाँ साइकिल का ठिकाना नहीं था वहाँ कार आ गई
अभी तक हमारा परिवार "संयुक्त परिवार " ही था.लेकिन अभी भी मेरी गिनती परिवार में एक निकम्मे और नाकारा सदस्य के रूप में होती थी.
मेरे बाकी भाई अकाउंट्स और बिजनेस में होशियार थे और उस पर पूरा ध्यान देते थे जबकि मैं एक कोने में बैठा खाली कागजों पर ड्राइंग बनाता रहता था.
परिवार में अक्सर मेरी खिल्ली उड़ाई जाती थी यह लड़का खानदान का नाम डुबोएगा, जब देखो कागज लेकर चिड़ियाँ कबूतर ही बनाता रहता है.
मुझे बुरा लगता था लेकिन मैं भी अपनी आदत से मजबूर था.
1984 मे अचानक मेरे पिता ने एक बहुत बड़ा उद्योग लगाने का निर्णय लिया,
अभी तक सूरत में आकर जितनी भी दौलत कमाई थी सारी की सारी दौलत उस प्रोजेक्ट में झोंक दी गई और उसके अलावा भी बैंकों से लोन लेकर इटली से एक भारी-भरकम और शानदार अत्याधुनिक टेक्सचराइजिंग मशीन आयात करने का निर्णय लिया.
मेरे सर पर उस भारी-भरकम प्रोजेक्ट को पूरा करने का लक्ष्य दे दिया गया ,और मुझे उस प्रोजेक्ट का सर्वे सर्वा बना दिया गया.
मेरे सर पर मानों किसी ने पहाड़ रख दिया.
सूरत से करीब 60 किलोमीटर दूर यह प्रोजेक्ट लगना था
लेकिन मैंने पूरे तन मन से अपने आप को इस प्रोजेक्ट में झोंक दिया, न दिन देखा न रात ,सिर्फ 8 महीने में अपनी कड़ी मेहनत के बलबूते पर एक भव्य, विशाल और संपूर्ण वातानुकूलित बिल्डिंग खड़ी कर दी जिसमें वह विदेशी मशीन लगाई जानी थी.
पूरी मशीन के पैसे पहले ही एडवांस में दे दिए गए थे
.इस बीच मेरी धूमधाम से शादी हो गई ,एक सुंदर और उम्मीद से बेहतर जीवनसाथी पाने का लक्ष्य बिना किसी कोशिश के ही पूरा हो गया.
शादी के तुरंत बाद लगातार आठ दिन तक कश्मीर की वादियों में जब मैं हनीमून के दौरान अपनी जिंदगी का सबसे बेहतरीन वक्त बिता कर जैसे ही मैंने घर में कदम रखा…
एक भयानक तूफान मेरा इंतजार कर रहा था…
जिस आयातक के द्वारा वह विदेशी मशीन इंपोर्ट की गई थी वह दिवालिया हो गया.
पिछले दस साल की पूरी कमाई और बैंकों से लिए लोन का सारा का सारा पैसा एक झटके में डूब गया.इस घोर असफलता का सारा इल्ज़ाम मेरे सर पर आया..
परिवार मानों फिर से सड़क पर आ गया. क्योंकि इस सारे प्रोजेक्ट का कर्ताधर्ता मैं था इसलिए मेरा मन भयंकर ग्लानि और अपराध भाव से भर गया
इतनी कड़ी मेहनत करने के बाद आए परिणाम से मैं गहरी निराशा में डूब गया और मैंने अपने लिए जीवन में पहली बार स्वयं एक बड़ा लक्ष्य निर्धारित कर लिया.
अपने जीवन का अंत करने का निर्णय…
लेकिन मेरे पिता ने मेरे संवेदनशील स्वभाव को पहचानते हुए मुझे हिम्मत दी… "कोई बात नहीं बहुत जिंदगी पड़ी है फिर कमा लेंगे "
उधर मेरी पत्नी ने समाज और परिवार में चारों तरफ से आने वाले व्यंग्य बाणों से आहत हुए मेरे मन पर मरहम रखने का काम किया.
लेकिन ईश्वर की कृपा और मेरे पिता के अथक प्रयासों के कारण एक साल के अंदर उस डूबी हुई रकम का 70% पैसा वापस आ गया.
मेरे पिता ने सबसे पहले बैंक के पैसे चुका दिए और उसके बाद जीवन में कभी लोन न लेने की सौगंध खायी.
लेकिन उस घोरअसफलता का कलंक जीवन भर के लिए मेरे साथ रह गया.
1991 में मेरे पिता ने अपने आप को संयुक्त परिवार से अलग कर लिया और अपना स्वयं का व्यापार प्रारंभ किया.
अचानक जीवन में पहली बार कला के स्वरूप में माँ सरस्वती मेरे उद्धार को आई.
मिलों के डिजाइन सेक्शन में जहां सैकड़ों की तादाद में आर्टिस्ट तरह तरह के डिजाइन बना रहे होते थे ,और जहां आम व्यापारियों को अंदर जाने की इजाजत नहीं थी. वहां मैंने अपने डिजाइन खुद बनाने की इजाजत मांगी.
पहली बार धड़कते दिल से मैंने तीन साड़ियों के डिजाइन अपने हाथ से खुद बनाये.
मुख्य प्रिंटिग मास्टर ने तीनों डिजाइन देखते ही रिजेक्ट कर दिए…
यह क्या बकवास डिजाइन बनाए हैं इसकी एक साड़ी भी कोई नहीं लेगा…
लेकिन मैंने अपने आत्म विश्वास के बलबूते पर उन तीन रिजेक्टेड डिजाइनों को मेरे माल पर छापने को तैयार कर लिया.
बस इस निर्णय ने मेरे जीवन की धारा ही बदल दी…
वह तीनों डिजाइन सुपरहिट हो गए…जिन तीन डिजाइनों को शुरुआत में सिर्फ 3000 मीटर छापा गया था वह बाद में लाखों मीटर की तादाद में छपे.
रातो रात मेरे डिजाईनों की धाक जम गई.
उसके बाद उसी मिल में मेरे लिए एक अलग डिजाइन सैक्शन बना दिया गया.
जीवन में पहली बार मुझ जैसे निकम्मे और नाकारा को इज्जत की निगाह से देखा जाने लगा.
सफलता कदम चूमने लगी… उसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
उसके बाद गाने बजाने और पेंटिंग करने से लेकर विश्वभ्रमण तक के सारे शौक पूरे किए.
बिना कोई लक्ष्य पर निशाना साधे सारे लक्ष्य अपने आप मेरी झोली में आ गिरे…
ऐसा भी नहीं है कि जीवन में उसके बाद चुनौतियाँ और उतार-चढ़ाव नहीं आए. उसके बाद भी ढेर सारी तकलीफों और असफलताओं का सामना किया.
आज मैं 60 वर्ष का हूँ .
ढेर सारे कठिन और असंभव प्रतीत होने वाले लक्ष्य जो कभी मेरे निशाने पर भी नहीं रहे , आज मेरे कदमों में पड़े हैं
लक्ष्य जिन को पाने के बारे में मैंने कभी स्वप्न में भी सोचा न था.न कभी अपने आप को उनके योग्य समझा.स्वयं ही चलकर मेरे द्वार पर आ गए
सच कहूँ तो आज भी मेरे निशाने पर कई लक्ष्य हैं, लेकिन लक्ष्यों के प्रति आसक्ति नहीं
इसलिए एक तरह से मैं लक्ष्य विहीन हूँ…
क्योंकि अपने सारे लक्ष्य मैंने नियति के अधीन रखे हैं
★ ★ ★
ऊपर लिखे प्रश्न के जवाब में मेरे जीवन भर का अनुभव कहता है कि
जीवन अपने आप में ही एक लक्ष्य है , यानी जीवन को जीना सबसे बड़ा लक्ष्य है.
इसीलिए जीवन पर कोई खतरा महसूस होते ही आप अपने बनाए सारे लक्ष्यों को भूलकर जीवन को बचाने में लग जाते हैं
आप सिर्फ एक तीर हैं , और नियति ने आप को जन्म देने के साथ ही आपके लिए सैकड़ों हजारों लक्ष्य भेदने के लिए निर्धारित कर दिया है.
आप भले ही अपने लिए हर रोज एक नया लक्ष्य रखें , लेकिन निशाना वहीं जाकर लगेगा जो नियति ने आपके लिए निर्धारित कर रखा है.
हो सकता है कई निशाने आपके लक्ष्य पर भी लग जाएं , लेकिन यह सिर्फ आपका भ्रम होगा. क्योंकि नियति ने भी यही लक्ष्य आपके लिए पहले से निर्धारित करके रखा था.
आपके द्वारा बनाए गए लक्ष्यों को प्राप्त होना सिर्फ एक संयोग मात्र है.
हमारे लक्ष्य हमारी आकांक्षाओं से ज्यादा कुछ नहीं है.
अब देखिए न !!! इस वर्ष कोरॉना महामारी ने संसार के लाखों करोड़ों तथाकथित "कर्मयोगियों" को अपने घर में है कैद कर दिया … न जाने कितने ही लोगों के अनगिनत लक्ष्य मिट्टी में मिल गए . और न जाने कितने मिट्टी में मिलने बाकी हैं
यही नियति है, यही प्रकृति का नियम है.
और अंत में ...
बचपन में मैं ताश के पत्तों से खेला करता था…
अब जाकर महसूस हुआ…
खेल रहा है और कोई…
पत्ता मैं हूँ
★ ★ ★ ★ ★ ★ ★
( ये मेरे अपने विचार हैं और असहमति की पूरी गुंजाइश है दोनों विचारों का स्वागत है)
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