सत्सङ्ग सागर जी ने आत्मशक्ति को मजबूत करने के उपाय के बारे में प्रश्न किया है और साथ ही यह भी पूछा है कि ' क्या आत्मशक्ति को प्रबल करके मनचाहे कार्य करवाए जा सकते हैं?'
अद्भुत प्रश्न है। इस प्रश्न में प्राचीन ऋषियों-मुनियों की वरदान क्षमता, आकाशगमन, देवी-देवताओं से वार्तालाप और प्रकृति के नियम को भी बदल देने की क्षमता का रहस्य छिपा हुआ है।
आत्मशक्ति का सीधा तात्पर्य आत्मबल से है। आत्मबल से क्या नहीं हो सकता, सभी कुछ सम्भव है। आत्मबल से मनचाहे कार्य करवा लेना या कर लेना तो मात्र एक अंश है, उसकी शक्ति का। यहां तक कि प्रकृति से विपरीत जाकर भी मनचाहे कार्य करवाए जा सकते हैं, जैसा ऋषि विश्वामित्र ने किया था; एक अलग ग्रह की सृष्टि ही कर डाली थी।
आत्मबल और तपोबल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसी तपोबल से उपजे हुए आत्मबल के कारण, आज भी ब्राह्मणों की मर्यादा बनी हुई है। ब्राह्मणों के इसी तपोबल के कारण उन्हें ब्रह्मतेज की प्राप्ति होती थी, जिसके सामने सभी अस्त्र- शस्त्र व्यर्थ हो जाते थे। ऋषि विश्वामित्र, ऋषि बाद में बने, पहले वे एक अहंकारी क्षत्रिय राजा थे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के ब्रह्मतेज से बुरी तरह पराजित होकर ही, सारा राज-पाट छोड़ कर ब्रह्मर्षि बनने के हठ ने उन्हें तपस्या करने को प्रेरित किया और वे ऋषि बने।
धिग्बलं क्षत्रिय बलम्, ब्रह्म तेजो बलम् बलम।
एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे।
'मेरे क्षत्रिय बल को धिक्कार है। ब्रह्मतेज का बल ही वास्तविक बल है। एक ब्रह्मदण्ड की शक्ति ने मेरे सभी अस्त्र शस्त्रो का नाश कर दिया।'
बाद में जब उनके अहंकार का भी नाश हो गया तब वे ब्रह्मर्षि भी कहलाए। अब, यह दूसरी बात है कि आज के ब्राह्मण, ब्रह्मतेज से हीन हो गये हैं और दयनीय स्थिति में हैं। वरदान देना और अभिशाप देना भी आत्मबल की ही एक शक्ति है।
तपश्चर्या करते करते आत्मा की स्थिति उस परमचेतना तक जा पहुंचती है, जहां से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का संचालन और सञ्चलन होता है। फलत:, आत्मतत्व में भी वही समस्त गुण समावेशित होने लगते हैं जो परमचैतन्य सत्ता में सन्निहित होते हैं। इस तरह आत्मबली व्यक्ति एक सामान्य व्यक्ति नहीं रह जाता वरन् एक समर्थ और शक्ति सम्पन्न आभापुञ्ज में परिवर्तित हो जाता है। उसके लिए कुछ भी करना असम्भव नहीं रह जाता। वह एक समर्थ शक्ति बन जाता है।
आत्मबल को क्षण प्रतिक्षण बलवान करते रहने का एक ही उपाय है, तपश्चर्या। तपश्चर्या के लिए, सर्वप्रथम मनोभूमि का शोधन और तत्पश्चात् १) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि तक के सभी अनुशासनों का पालन करें।
मनोभूमि के शोधन से लेकर समाधि तक की अवस्था प्राप्त करते करते आपका आत्मबल, ब्रह्माण्ड की सशक्त चेतना की परिधि तक निश्चित ही पहुंच जाएगा और उसके बाद आपकी लगन, निष्ठा और चेतना की श्रेष्ठता पर यह निर्भर करेगा कि आप उस परम चेतना के केन्द्र तक पहुंच सकेंगे या उसके पूर्व ही अस्तित्व खो कर उसी में विलीन हो जायेंगे।
फोटो स्रोत: गूगल
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