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क्या रामायण की कथा पूर्ण रूप से सत्य है।

श्री रामचरितमानस महाकाव्य उच्च जीवन, आदर्श, त्याग, वीरता, कर्तव्य, प्रेम, समर्पण आदि नैतिक मूल्यों का दर्पण है । यह महाकाव्य हर युग में संसार के लिए शिक्षाप्रद रहेगा । धार्मिक और साहित्यिक दृष्टिकोण से यह महाग्रन्थ भारत ही नहीं अपितु अन्य देशों में भी लोकप्रिय है । रामायण काल के साक्ष्य आज भी भारत एवं आसपास की धरती पर विद्यमान हैं । इस लेख का उदेश्य यह समझना है कि क्या महाकाव्य रामायण एक काल्पनिक कथा है या हजारों साल पहले घटित श्री रामचंद्र जी के जीवन काल की ऐतिहासिक घटना है ?
जब ऐतिहासिक घटनाएँ बहुत लम्बा सफर तय कर लेती हैं तब कुछ बुद्धिजीवी उनकी प्रमाणिकता पर संशय करने लगते हैं । 18वीं एवम् 19 वीं शताब्दी में घटने वाली घटनाएँ इसलिए सत्य प्रतीत होती है क्योंकि उनके साक्षी हमारे पास है । परन्तु जब धीरे-धीरे इन घटनाओं पर समय की परत चढ़ती जाती हैं, तब कुछ लोग उन्हें सत्य मानते हैं तथा कुछ लोग उन्हें मात्र एक उपन्यास की नज़र से देखने लगते हैं । आगे आने वाली पीढियाँ इस बात पर ही अचम्भित हुआ करेंगी कि क्या सच में भारत गुलाम रहा था या उस समय की यह मात्र एक कल्पना ? अन्धविश्वास हमें जहाँ सत्य से दूर ले जाता है वहीं संदेह और तर्कशील दृष्टिकोण हमें सत्य के करीब ले आता है । यही बात पावन ग्रन्थ रामचरितमानस के सन्दर्भ में सही साबित होती है । जब कुछ बुद्धिजीवियों ने रामायण को मात्र एक काल्पनिक कहानी कहा, तब इस ग्रन्थ पर अनेक शोधकार्य हुए । राम कथा में अंकित स्थानों के ऐतिहासिक एवम् वैज्ञानिक दृष्टिकोण के सर्वेक्षण ने अनेक बुद्धिजीवियों के मुँह पर ताले लगा दिए । राम निवास जाजू की पुस्तक ‘मेरे सौरभ द्वार’ के पृष्ट संख्या 300 के अनुसार इटली के फ्लोरेंस विश्वविद्यालय में पी. एल. तेस्सी तोरी ने सन 1911 में तुलसीदास पर पहली पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त कर अनेक विद्वानों को चकित कर दिया । उन्होंने रामचरितमानस और रामायण पर शोध कार्य किया । दूसरा शोध कार्य लन्दन के जे. एन. कारपेंटर द्वारा 1918 में किया गया । इस शोध को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया । भारत में तुलसीदास पर पहली पी. एच. डी. नागपुर विश्वविद्यालय में सन 1938 में बलदेव प्रसाद मिश्र ने प्राप्त की ।
1934-35 में बेल्जियम से भारत आए फादर कामिल बुल्के ने राम कथा की उत्त्पति और विकास पर कार्य करके ‘इलाहबाद विश्वविद्यालय’ से पहले डी.फिल. तथा बाद में 1950 में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर रामायण को विश्व साहित्य की धरोहर का दर्जा दिलवाया । फादर कामिल बुल्के ने पूरी दुनिया में रामायण से जुड़े 300 रूपों की पहचान की । अलौकिक महाकाव्य रामचरितमानस के कारण ही, तुलसीदास जी ने भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी ख्याति पाई । राम निवास जाजू की पुस्तक ‘मेरे सौरभ द्वार ’ के पृष्ट संख्या 300 के अनुसार दक्षिण भारत के एक विश्वविद्यालय ने एक सेमीनार के दौरान यह सिद्ध किया कि तुलसीदास पर अनेक भाषाओं में 7,500 से अधिक शोध पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं । सुलभ अकादमी की पत्रिका ने यह दावा किया है कि महाकवि तुलसीदास के साहित्य पर पी.एच.डी. और डि.लीट. पर पाँच-सौ से ज्यादा डिग्रियाँ दी जा चुकी हैं । संसार के अन्य किसी कवि पर इतना शोध कार्य अब तक नहीं हुआ । तुलसीदास द्वारा रचित साहित्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी लोकप्रिय है ।
कृष्ण कुमार गोस्वामी द्वारा लिखित पुस्तक ‘अनुवाद विज्ञान की भूमिका’ के अनुसार रूस के प्रतिष्ठित लेखक अलेक्सेई पेत्रिविच वरान्नि कोव ने सन 1948 में तुलसीदास रामायण का पद्यानुवाद रुसी भाषा में किया इसमें उनके सुपुत्र प्यात्र अलेक्सेयेविच वरान्नि कोव ने भी सहायता की । उन्होंने रामचरितमानस को विश्व की 2,796 भाषाओं में लिखी अन्य कृतियों से अधिक सर्वश्रेष्ट महाकाव्य घोषित किया ।
1988 में चीन के लेखक जिन-दिन-हान ने मानस का छ्न्दबद्ध अनुवाद चीनी भाषा में किया । यह चीन में बहुत लोकप्रिय हुआ । जापानी भाषा में मानस का अनुवाद 1991 में इकेदा ने ‘भगवान राम के चरित्र का सरोवर’ नाम से अनुवाद किया । वैसे रामचरितमानस को अपनी प्रमाणिकता सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि मधुर निर्मल राम कथा भारत ही नहीं बल्कि और भी कई देशों के निवासियों के हृदय में निवास करती हैं । महा ऋषि वाल्मीकि ने संस्कृत भाषा में पहले रामायण की रचना की । बाद में तेलगू, मराठी, हिंदी, बँगला, उड़िया आदि अन्य भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ । आगे चलकर तुलसीदास जी ने सम्वत 1631 को त्रेतायुग जैसे रामनवमी का योग जानकर श्री रामचरितमानस का आरम्भ किया तथा सम्वत 1633 में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को इसे भारतीय संस्कृति का हिस्सा बनाया । तुलसीदास जी ने संस्कृत रामायण को अवधी भाषा में दोहा, सोरठा, चौपाई आदि छंदों में पिरोकर रामचरितमानस को भारत के जन-जन तक पहुँचाया ।
कुछ शोध शास्त्रियों के अनुसार रामायण काल 7,323 ईशा पूर्व, यानी आज से 9,341 वर्ष पूर्व बताया गया है । जब कि कुछ शोध शास्त्रियों ने श्रीराम का जन्म 5,114 ईशा पूर्ण चैत्र मास की नवमी का बताया है। रामायण काल के समय पर अभी भी बुद्धिजीवियों के अलग अलग मत हैं ।
भारतीय पुरातत्व विभाग और आई. आई. टी. खड़गपुर के कुछ शोध शास्त्रियों ने सिन्धु घाटी 5,500 साल नहीं बल्कि 8,000 साल पुरानी होने के संकेत दिए हैं । यह शोध प्रतिष्ठित रिसर्च पत्रिका ‘नेचर’ ने 2016 में प्रकाशित किया । इस दौरान वैज्ञानिकों ने नई तकनीक द्वारा इस सभ्यता की उम्र का पता लगाया । प्रसिद्ध इतिहाकार व पुरातत्वशस्त्री डॉ. राम अवतार शर्मा ने रामायण काल से सम्बन्धित वैज्ञानिक शोध से लगभग 200 स्थानों का पता लगाया । वनवास के समय जहाँ सीता-राम जी ठहरे उन स्थानों के स्मारकों, गुफाओं, भितिचित्रों का गहन जाँच पड़ताल से अध्ययन कर अनेक साक्ष्य प्रस्तुत किए ।
हरियाणा के दडौली गाँव के रहने वाले डॉ. राम अवतार शर्मा ने 21 देशों की यात्राएँ की तथा राम से जुड़े साक्ष्य एकत्रित किए । उन्होंने कहा कि करीब 50 देशों में राम पूजा होती हैं । राम अवतार शर्मा ने इस समयावधि में करीब 290 चित्र लिए जो उन्होंने चित्रकूट पर एक संग्रहालय बनवाकर उसमे स्थापित किए हैं । डॉ. राम अवतार शर्मा ने केवट प्रसंग से जुड़े सिंगरौर (इलाहबाद से करीब 35 किलोमीटर ), कुरई, चित्रकूट, अत्रि ऋषि आश्रम, दंडकारण्य (मध्यप्रदेश एवं छतीसगढ़ के जंगल) पंचवटी, पर्णशाला (आंध्रपदेश ), सबरी आश्रम (केरल), ऋष्यमूक पर्वत, कोडीकरई, चंदन वन, मलय पर्वत, रामेश्वरम, धनुषकोडी, लंका, आशोक वाटिका आदि स्थानों के बारे में प्रमाणिक जानकारी एकत्रित की । भारतीय सेटेलाइट और अमेरिका के अनुसन्धान संस्थान ‘नासा’ के उपग्रह ने जब एतिहासिक ‘रामसेतु’ जो धनुषकोडी तथा श्रीलंका के बीच में 48 किमी चौड़ी पट्टी एक रेखा के रूप में दिखाई देता है के चित्र खींचे तब इसके राम सेतु होने के संकेत मिले । 1993 में इन चित्रों को दिल्ली प्रगति मैदान में ‘राष्ट्रीय विज्ञान केंद्र’ में प्रदर्शनी के लिया रखा । जब कुछ वैज्ञानिकों ने इसे मानव निर्मित बताया, तब राम सेतु पर अनेक वाद-विवाद होने लगे । भारतीय सर्वेक्षण विभाग तथा अमेरिकी भूगर्भ वैज्ञानिकों की एक टीम ने राम सेतु को मानव निर्मित घोषित कर उसे ऐतिहासिक विरासत का दर्जा दिया । एक अमरीकी सांइस चैनल ने रामसेतु पर “एनशिएंट लैंड ब्रिज” नाम से शो बनाया है । यह शो अमरीकी वैज्ञानिकों की शोध पर आधरित है जिसमे रामसेतु को एक बड़ी मानवीय उपलब्धि के रूप में दिखाया गया है । बुद्धिजीवी आलोचकों, राजनीतिक सियासत भले ही आज भी रामसेतु पर विवादित ब्यान देती रही है, परन्तु लोगों की आस्था हमेशा राम सेतु से जुड़ी हुई हैं । यह सेतु इस बात का प्रतीक है कि रामायण काल में विज्ञान के आविष्कार अपनी चरम सीमा पर थे । रामायण काल में इस सेतु का नाम ‘नलसेतु’ रखा गया बाद में इसे रामसेतु, सेतुबंध आदि नामों से जाना जाने लगा । जब मुगल भारत में आए तब वह इस सेतु को आदम पुल कहने लगे । बाद में ब्रिटिश सरकार ने जब यहाँ रेल मार्ग का निर्माण करवाया, इंग्लिश उच्चारण के कारण ‘आदम पुल’ को वह ‘एडम ब्रिज’ कहने लगे ।
वैज्ञानिक आधार पर इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उस समय का विज्ञान बहुत उन्नत रहा होगा । रावण द्वारा लिखित ‘रावण सहिंता’ के अध्ययन से आज भी विज्ञान ज्योतिष को समझा जा रहा हैं । आज जिस परमाणु बम को बनाकर संसार अपने आप को सर्वशक्तिमान समझ रहा है, रामायण से ज्ञात होता है कि उस काल में इससे भी समृद्ध विस्फोटकों का निर्माण हो चुका था । सुंदरकाण्ड के एक चौपाई में श्री रामचन्द्र द्वारा बाण से समुद्र को सुखाने की बात वर्णित हैं । आज जो प्लास्टिक सर्जरी प्रचलित है उस शल्यचिकित्सा का निर्माण भारतीय ऋषि बहुत वर्षों पहले कर चुके थे । आयुर्वेद, योग, प्राणायाम आदि प्राचीन ऋषियों की ही देन हैं । जो शब्द भेदी बाण दशरथ ने श्रवण कुमार पर चलाया था, वह विद्या पृथ्वीराज के समय तक भी जिन्दा रही जब भरी सभा में नेत्रहीन पृथ्वीराज ने महोम्मद गौरी पर शब्द भेदी बाण चलाकर उसे मार गिराया । यह हमारे अद्वितीय गौरवशाली इतिहास का प्रतीक है । आने वाले कुछ वर्षों में पृथ्वीराज चौहान की इस घटना पर भी आलोचक संदेह कर सकते हैं । रामायण काल के भवनों के कुछ अंश आज तक भी मूक गवाह बने हुए है । यह उस काल के बेजोड़ इंजीनियरिंग तकनीक के उन्नत होने का प्रमाण है । मन की गति से चलने वाला पुष्पक विमान आज भले ही एक कल्पना मात्र लगे पर आज तक आधुनिक वैज्ञानिक भी मन की गति से चलने वाले विमान बनाने में सफलता हासिल नहीं कर सके । रामायण काल, संस्कार, मर्यादा, वचन, प्रजातंत्र आदि नैतिक मूल्यों का संवाहक रहा है । यह वैज्ञानिक काल भले ही बीता कल बन चुका है परन्तु इसके चिह्न भारत भूमि पर सदा रहेंगे ।
इन तथ्यों से यह सत्यापित होता है कि वाल्मीकि रामायण कोई काल्पनिक कथा न होकर वास्तविक घटनाओं पर लिखी गई कृति है । श्री राम का जीवन चरित्र सबके लिए प्रेरणादायक है । श्री रामचरितमानस आदर्शों एवं नैतिक मूल्यों की गाथा से प्रभावित होकर भारत ही नहीं बल्कि अन्य देशों के विद्वान इस अद्भुत कृति के आगे नतमस्तक हुए । आज भी रामसेतु अपने प्राचीन स्वरूप में ऐतिहासिक धरोहर के रूप में हमें गौरान्वित कर रहा है ।

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