Religion.
धर्म मात्र बौद्धिक उपलब्धि ही नहीं है, वह मनुष्य की स्वाभाविक आत्मा है, परंतु वह शरीर और कर्म के आवरण से ढकी हुई है। इसीलिए वह अज्ञात है। आवरण से चैतन्य ढका हुआ है, पर उसका अस्तित्व विस्मृत नहीं है। सूर्य बादल से ढका हुआ है, पर वह अस्त नहीं है। मनुष्य प्रत्येक प्रवृत्ति के उपरांत विराम चाहता है। शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति मनुष्य को वाह्य जगत् में ले जाती है। वाणी मौन होना चाहती है और शरीर शिथिल। शरीर की शिथिलता, वाणी का मौन और मन का अंतर में विलीन होना ध्यान है और यही आत्मा का स्वाभाविक रूप है, यही धर्म है। धर्म का अर्थ है आत्मा से आत्मा को देखना, आत्मा से आत्मा को जानना और आत्मा से आत्मा में स्थित होना। जो आत्मा का स्वभाव नहीं है वह धर्म नहीं है। धार्मिकता अंत:करण की पवित्रता है। वह धर्म की रुचि होने मात्र से प्राप्त नहीं होती, उसकी साधना से प्राप्त होती है। साधना करने वाले धार्मिक बहुत कम हैं। अधिकतर धार्मिक सिद्धि प्राप्त करने वाले लोग हैं। आज का धर्म भोग से इतना आच्छन्न है कि त्याग और भोग के मध्य कोई रेखा नहीं जान पड़ती। धर्म का क्त्रांतिकारी रूप तब होता है जब वह जनमानस को भोग-त्याग की ओर अग्रसर करे।
जहां त्याग और भोग की रेखाएं आसपास जाती हैं, धर्म अर्थ से संयुक्त होता है, वहां धर्म अधर्म से ज्यादा भयंकर बन जाता है। यदि हम चाहते हैं कि धर्म पुन: प्रतिष्ठित हो तो हम उसके विशुद्ध रूप का अध्ययन करें। हम उस युग में धर्म की पुन: प्रतिष्ठा की बात कर रहे हैं जिस युग का नाम उपलब्धि की दृष्टि से वैज्ञानिक, शक्ति की दृष्टि से आणविक और शिक्षा की दृष्टि से बौद्धिक है। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक बंधन से मुक्त किंतु समाज, राजनीति और आर्थिक क्षेत्र को प्रभावित करने वाला धर्म ही वास्तव में प्रभावशाली हो सकता है। धर्म से आत्मोदय होता है, यह उसका वैयक्तिक स्वरूप है। उसका प्रभावशाली होना सामाजिक स्वरूप है। यही दोनों रूप आज अपेक्षित हैं। यही शाश्वत व परिवर्तन की मर्यादा को समझने से ही प्राप्त हो सकते हैं।
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